ऊँ ही श्री कृष्ण 

ऊँ ही श्री कृष्ण
यह सर्वविदित है कि इस संसार के रचयिता और पालनहार भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीमदभगवतगीता में उन्होंने अपने नाम से पूर्व ‘ऊँ‘ का उच्चारण किया है। यही कारण है कि जब साधक ईश्वर का किसी भी रूप में भजन करता है तो सर्वप्रथम अपने मुख से ऊँ का उच्चारण करता है। ऊँ नमः शिवाय, ऊँ दुर्गायै नमः, ऊँ शनैश्चराय नमः, ऊँ बुद्धाय नमः, ऊँ जिनाद्रय नमः, ऊँ नमों भगवतै वासुदेवाय नमः आदि। अर्थात् ईश्वर की शरण में जाने का सर्वोच्च शब्द ऊँ का उच्चारण है।
श्री कृष्ण नाम एक है परन्तु रूप अनेक हैं। श्रीकृष्ण, यशोदा एवं देवकी के लिये पुत्र, राधा के लिये प्रियतम, गोप-गोपियों, सुदामा और अर्जुन के लिए सखा, कंस के निकन्दन, कालियानाग एवं दैत्यों के मर्दन, मीरा के कृष्ण, अपने भक्तों के जनार्दन अथवा पालनहार, दक्षिण भारत में गोविंदा अर्थात् जिस भक्त ने, जिस भाव से उनका भजन किया, वे उसे उसी रूप में, उसे प्राप्त हुए। अभिप्राय यह है कि श्रीकृण जी के अनेक रूप है परन्तु वे एक ही परम्पपिता परमात्मा हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ही एक ऐसे ईश्वर है जिन्होंने मानवीय रूप में अवतरित होकर पृथ्वी पर अपनी इह लीलाओं के द्वारा प्रतिक्षण स्वयं के ईश्वर होने का प्रमाण जनमानस को दिया। सर्वप्रथम मथुरा की कारागार में देवकी नन्दन के रूप में जन्म लेकर, कारागार में रक्षकों को गहन निद्रा में पहुँचाकर, पिता वासुदेव जी के द्वारा छाज में ले जाते हुए, उफनती यमुना को शांत कराया और नन्दबाबा के घर पहुँचकर माँ यशोदा के आंचल में अपनी बाल लीलाएँ प्रारम्भ की। उन्होंने 14 वर्ष की अल्पायु तक विभिन्न चमत्कार किए यथा – राक्षसी पूतना, ताड़का, नरकासुर, शकटासुर, कालियानाग का दमन किया, माँ यशोदा को अपने मुख में समस्त ब्रह्माण्ड के दर्शन कराए, गौवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ट अंगुली पर धारण कर देवराज इन्द्र के दंभ को चकनाचूर किया। मथुरा नरेश कंस तथा उसके आठों भाईयों का वध करके अपने पिता वासुदेव जी को कारागार से मुक्त कराके उन्हें मथुरा की राजगद्दी पर शोभायमान कराया।
श्रीकृष्ण जी ने अपनी युवावस्था में पांडवों को उनका सम्मान प्राप्त कराने हेतु महाभारत युद्ध की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि अपनी चतुराई से तैयार की। सम्पूर्ण महाभारत में एक विशिष्ट तथ्य यह था कि श्रीकृष्ण ने प्रत्यक्ष रूप से स्वयं कुछ ना करके भी अपने चातुर्य से सबकुछ करा दिया। कौरवों का दमन कराया, गांधारी के वरदान स्वरूप दुर्योधन के सम्पूर्ण शरीर को वज्र के समान होने से पूर्व ही उसकी जंघा को कमजोर करने हेतु, उस भाग को उसकी माता के वरदान की शक्ति से दूर कर दिया, जोकि उसकी मृत्यु का कारण बना। इससे जहाँ एक ओर कौरव समूल नष्ट हो गए, वहीं दूसरी ओर महारानी  द्रोपदी, जिसके कारण महाभारत का युद्ध हुआ, उस युद्ध में द्रोपदी के भाई धृष्टद्युम्न एवं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का भी अंत हुआ। अर्थात् सभी को उन्होंने उनके कर्मो के अनुसार ही फल प्रदान दिया। यही ईश्वरीय न्याय है।
श्री कृष्ण की बांसुरी की ध्वनि को सुनकर गोकुल, मथुरा और वृंदावन के समस्त जन उनके वश में हो जाते थे। रूकमणी, जामवती, सत्यभामा और यमुना ने श्रीकृष्ण से विवाह करने हेतु तपस्या की, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने उनसे विवाह किया। इनके अतिरिक्त कांलंदी, चित्रागंदा, भद्रा और लक्ष्मणा – ये सभी श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थी।
श्रीकृष्ण की उपरोक्त लीलाएं जो उन्होंने इस संसार में मानवीय रूप धारण करके की। उनके द्वारा की गई प्रत्येक लीला, संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कर्म करने का उपदेश देती हैं और यह भी शिक्षा देती हैं कि सत्कर्मो के द्वारा ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है।
श्री कृष्ण जी के तीन नाम ‘जनार्दन‘, ‘देवकीनन्दन‘, ‘कंसनिकंदन‘ इनको जो भक्त नित् प्रतिदिन जपता है, उससे भगवान अवश्य ही प्रसन्न होते है तथा उसका कल्याण भी करते है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।
Journalist Yogesh Mohan
Journalist Yogesh Mohan
योगेश मोहन
( वरिष्ठ पत्रकार और आईआईएमटी यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति )
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