Festival of lights : आत्मा का दीपोत्सव
हे मानव!
रावण केवल सोने का लंका-पति नहीं था,
वह तेरे भीतर पलने वाला अहंकार है।
वह तेरी वाणी का कठोर शब्द है,
तेरे मन का विकार है,
स्वार्थ और मोह का जाल है।
राम बाहर नहीं,
तेरे अंतर्मन के प्रकाश में हैं।
राम वह धैर्य हैं,
क्रोध में भी संयम रखते हैं।
राम सत्य हैं,
जो कठिन परिस्थितियों में भी तेरे साथ खड़े रहते हैं।
इसलिए-
अहंकारी दशानन के दस सिर हैं-
क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, वासना, कपट, स्वार्थ, आलस्य, अभिमान और अन्याय।
पहले खुद के अंदर के रावण को जलाओ।
यही है असली विजयादशमी,
यही है आत्मा का दीपोत्सव।
जब-जब भीतर का रावण जलता है,
तब-तब अंतर्मन राम से आलोकित होता है।
बाहर जलने वाले दीपक केवल प्रतीक हैं,
परंतु भीतर जलने वाला दीप ही अमर है।
शास्त्र कहते हैं-
“आत्मा ही रणभूमि है, और विचार ही शस्त्र हैं।”
राम और रावण का संग्राम बाहर नहीं,
तेरे अंतरमन में होता है।
जो राम को चुनता है,
वह सत्य, प्रेम और धर्म का पथिक बनता है।
जो रावण को पालता है,
वह अहंकार में जलकर स्वयं भस्म हो जाता है।
इसलिए हे साधक!
अंतरमन दीपक जले, रावण भस्म हो जाए,
भीतर राम प्रकाशित हो, जगत राममय हो जाए।
!!स्वरचित!!
दीपशिखा त्यागी
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