लोकसभा अध्यक्ष अर्थात संसद के मुख्य न्यायधीश का पद अत्यधिक ही गरिमापूर्ण होता है, जिसको किसी भी व्यक्ति के लिए प्राप्त करना एक विशिष्ट उपलब्धि मानी जाती है। लोकसभा अध्यक्ष पद पर नियुक्त नेतृत्व के कार्यकलापों का आंकलन न केवल देश अपितु सम्पूर्ण विश्व के राजनेताओं एवं नागरिकों के द्वारा विशेष रूप से किया जाता है। उसका प्रत्येक शब्द एवं प्रतिक्रिया का एक विशिष्ट अर्थ होता है, परन्तु भारत जैसे संस्कारवान देश में इस पद पर शोभायमान लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री मावलंकर जी का कार्यकाल विवादों से परिपूर्ण रहा जोकि सम्पूर्ण भारत देश के लिए वास्तव में एक सुखद स्थिति नहीं थी। ऐसी स्थिती न केवल उनके कार्यकाल में ही रही अपितु उनके पश्चात के अधिकांश लोकसभा अध्यक्षों की कार्यशैली पर भी समय-समय पर आक्षेप लगते रहें हैं जोकि भारत देश की लोकतंत्र प्रणाली पर एक प्रश्न चिह्न है।
जनसंघ के संस्थापक श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इस पद की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक उत्तम सुझाव यह दिया था कि लोकसभा अध्यक्ष निर्वाचित होने के पश्चात चयनित नेता को अपनी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दे देना चाहिए। श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा दिया गया यह सुझाव अत्यन्त ही श्रेष्ठ था, क्योंकि उनकी तीक्ष्ण बुद्धि ने इस विषय पर गहन मंथन कर यह सुझाव दिया था। उनके अनुसार लोकसभा अध्यक्ष यदि किसी पार्टी से आबद्ध रहेगा तो वह अपने पद के साथ न्याय नहीं कर पायेगा और न्याय न कर पाने के कारण वह विभिन्न विवादों अथवा आक्षेपों का सामना करता रहेगा। विशेष रूप से विपक्षी पार्टियों के सदस्यों के साथ उसको न्याय करने में अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। प्रतिपल उसको इस अहसास की अनुभूति होती रहेगी कि पाँच वर्षों के कार्यकाल के पश्चात सांसद के रूप में अपनी सदस्यता को यथावत बनाए रखने के लिए उसे पुनः अपनी मूल पार्टी की शरण में जाना होगा जोकि एक त्रुटिपूर्ण परम्परा है। जब कोई नेता एक बार अध्यक्ष पद को सुशोभित कर लेता है तो उसे भविष्य में पुनः ससंद में एक सांसद के रूप में कार्य करना शोभा नहीं देता क्योंकि ऐसा होने पर अध्यक्ष जैसे उच्च पद का अपमान होगा। इसलिए किसी भी नेता के द्वारा अध्यक्ष पद को गृहण करने के पश्चात उस पद हेतु स्वयं को पूर्ण रूप से तैयार करने की आवश्यकता है, जिसके अन्तर्गत या तो वह उस पद पर पुनः शोभायमान होगा अथवा राजनीति त्यागकर समाज सेवा के कार्य में संलग्न हो जाएगा।
संसदीय अध्यक्ष के पद पर नियुक्त व्यक्तित्व को सदैव ही यह संज्ञान होना चाहिए कि उनका कोई भी निर्णय यदि भेदभाव से परिपूर्ण होगा तो उनकी छवि निश्चितः जनता के समक्ष नकारात्मक होगी एवं इसके दुष्प्रभाव से उनकी आगामी पीढ़ियों को भी समाज के समक्ष लज्जित होना पड़ेगा। केन्द्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो परन्तु अध्यक्ष को अपना राजनीतिक व धार्मिक दायित्व पूर्ण निष्पक्षता के साथ निर्वाह करना चाहिए। अध्यक्ष का प्रत्येक निर्णय नीर-क्षीर-विवेक के साथ ईश्वर को समर्पित करते हुए लिया जाना चाहिए तभी वह देश, विदेश व समाज में अपनी एक आदर्श छवि स्थापित कर पाएगा।
योगेश मोहन
(वरिष्ठ पत्रकार और आईआईएमटी यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति )